देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की निरंजनपुर शाखा में रविवार को विशाल पैमाने पर दिव्य सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का आयोजन हुआ।
संस्थान के संस्थापक एवं संचालक पूर्ण सद्गुरू आशुतोष महाराज की असीम अनुकम्पा से मंचासीन ब्रह्म्ज्ञानी संगीतज्ञों द्वारा ईश्वर की महिमा में अनेक सुन्दरतम भजनों का गायन किया गया, तदुपरान्त संस्थान की प्रचारक साध्वी विदुषियों ने परमात्मा तक पहुंचाने वाले परम मार्ग के संबंध में उपस्थित भक्तजनों का मार्ग दर्शन किया।
उल्लेखनीय है कि संस्थान प्रत्येक माह के प्रथम रविवार को आश्रम में विशाल भण्डारा आयोजित करता है, आज भी कार्यक्रम के समापन पर एैसा ही भण्डारा आयोजित हुआ।
कार्यक्रम का शुभारम्भ ही संस्थान के वेदपाठी ब्रह्मवेत्ता साधकों एवं साधिकाओं द्वारा किए गए वेदपाठन से किया गया। वातावरण में दिव्यता की तरंगे संचारित होती चली गईं। भजनों की सारगर्भित व्याख्या करते हुए मंच संचालन साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी के द्वारा किया गया।
उन्होंने बताया कि वे लोग बड़े ही सौभाग्याशाली होते हैं जिन्हें पूर्ण गुरू की शरण प्राप्त हो जाती है। गुरू तथा परमात्मा में कोई भेद नहीं है, दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। शास्त्र भी कहता है- गुरू परमेश्वर एको जाण। शिष्य को सदैव लघुता को ही अपनाना चाहिए क्योंकि लघुता में ही प्रभुता छुपी होती है।
गुरू की प्राप्ति के लिए चाहे कुछ भी करना पड़े गुरू को प्राप्त करने मंे तनिक भी विलम्ब नहीं होना चाहिए। कहा भी गया- यह तन विष की बेलरी, गुरू अमृत की खान, शीश दिए जो गुरू मिले, तो भी सस्ता जान। अपने प्रवचनों में साध्वी जाह्नवी भारती जी ने बताया कि सत्संग की प्राप्ति का अवसर विरले मनुष्यों को ही मिला करता है। मनुष्य एक बूंद के सदृश्य है जबकि परमात्मा एक सागर की तरह है।
यदि बूंद सरिता का संग कर ले तो सागर में समाकर स्वयं सागर का ही एक रूप हो जाया करती है। इसी प्रकार जीवात्मा को यदि सत्संग रूपी सरिता की धारा में बहने का सुअवसर प्राप्त हो जाए तो वह ईश्वर रूपी महासागर से मिल सकती है।
कार्यक्रम में प्रवचन करते हुए सदगुरू आशुतोष महाराज की शिष्या तथा संस्थान की प्रचारिका साध्वी विदुषी अरूणिमा भारती जी ने कहा कि जिस भक्त के भाव अपने ईष्ट के प्रति प्रबल रूप से निष्कामता लिए हुए होते हैं तो एैसे भक्त के वशीभूत होकर वह परमात्मा सदैव उसके अंग-संग रहा करते हैं।
जो भक्त अपनी दृष्टि लक्ष्य पर रखता है उसे सफलता मिलकर ही रहती है। सदगुरू सूक्ष्म परमात्मा का स्थूल स्वरूप हुआ करते हैं, जिसे गुरू से प्रेम है वह गुरू के वचनों पर बिना किसी संशय के अमल करने के लिए सदैव तत्पर रहा करता है। गुरू के वचनों का अक्षरशः पालन करने वाला और मन-वचन-कर्म से उनकी आज्ञा में चलने वाला शिष्य कभी भी मायूस नहीं हुआ करता।
शिष्य की यही बस पुकार होती है- जो तुमको हो पसंद, वही बात कहेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे। संसार का क्या है, यह तो द्वन्दात्मक ही है, इसे तो अर्थ का अनर्थ करना बखूबी आता है, कबीर साहब इसकी असलियत कुछ एैसे जाहिर करते हैं- रंगी को नारंगी कहे, बने दूध को खोया, चलती को गाड़ी कहे, देख कबीरा रोया।
शिष्य को अपने गुरू घर से उतना ही प्रेम हुआ करता है जितना कि अपने सदगुरूदेव से होता है। गुरू घर को अभिवंदित करते हुए कहा जाता है- इंसाफ का मंदिर है ये, भगवान का घर है, कह दे जो तुझे कहना है, तुझे किस बात का डर है।
शिष्य अपने गुरू की अभिव्यक्ति हुआ करता है। आवश्यकता है कि शिष्य गुरू के साथ भीतरी जगत में इकमिक हो जाए। फिर भीतर से ही आदेश और निर्देश दोनों प्राप्त होने लगते हैं।