पौड़ी। गढ़वाल के चुनावी संग्राम में इस बार जाति के मुद्दों की बात नहीं होगी। पहली बार चुनाव से जातिगत राजनीति के दांवपेच नदारद हैं। इस सीट से भक्त दर्शन और बीसी खंडूड़ी नौ बार सांसद रहे हैं। गढ़वाल संसदीय सीट का अपना इतिहास है। क्षेत्र का भक्तदर्शन, हेमवती नंदन बहुगुणा, भुवन चंद्र खंडूड़ी, सतपाल महाराज व चंद्र मोहन सिंह नेगी सरीखे दिग्गजों प्रतिनिधित्व किया। गढ़वाल की सियासी जमीन पर जब-जब चुनाव हुआ, उसने पूरे प्रदेश का ध्यान अपनी ओर खींचा, लेकिन गढ़वाल के चुनावी समर में हमेशा जाति का मुद्दा हावी रहा।
जातीय आधार पर वोटों को बांटने की यह विकृति सौभाग्य से इस बार के लोक सभा चुनाव में नदारद है। दो चिर प्रतिद्वंद्वी दल भाजपा और कांग्रेस के उम्मीदवारों के बीच की जंग या तो मुद्दों पर लड़ी जा रही है या फिर खुद को पहाड़ का सच्चा हितैषी जताने के लिए। लोकसभा चुनाव का प्रचार धीरे-धीरे रफ्तार पकड़ने लगा है। भाजपा और कांग्रेस ने गढ़वाल में अपने-अपने प्रत्याशी ब्राह्मण उतारे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि इस बार जातिगत समीकरण एकदम से हाशिए पर चले गए हैं। यह पहली बार है, जब पहाड़ की शांतवादियों में चुनाव में जातिवाद के बजाय जनमुद्दों की चर्चा हो रही है।
गढ़वाल लोकसभा संसदीय क्षेत्र में पांच जिले चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी के अलावा नई टिहरी और नैनीताल का कुछ हिस्सा शामिल है। इसमें कुल 14 विधानसभा सीटें हैं। जानकारों के अनुसार, गढ़वाल संसदीय क्षेत्र में 45 प्रतिशत ठाकुर, 30 प्रतिशत ब्राह्मण और लगभग 18 प्रतिशत अनुसूचित जाति के मतदाता हैं। ऐसे में यहां बीते लोकसभा चुनाव तक जातिगत समीकरण हमेशा से हावी रहे हैं। इतिहास गवाह है कि कांग्रेस से भक्तदर्शन और भाजपा से बीसी खंडूड़ी ही ऐसे दो सांसद रहे हैं, जो सबसे अधिक बार यहां से जीतकर संसद पहुंचे। ये दोनों प्रत्याशी क्रमश: चार व पांच बार यहां से जीते।
वहीं, सतपाल महाराज को तीन बार जीत मिली। इस लोकसभा सीट पर बीते चुनावों में ब्राह्मण व ठाकुर प्रत्याशी के चलते चाय की दुकानों से लेकर चौराहों तक जातिगत समीकरणों पर चर्चा होती रही है। वर्ष 1982 में इस सीट पर हुआ उप चुनाव जातिगत राजनीति का उदाहरण माना जाता है। यह चुनाव जहां तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बनाम हेमवती नंदन बहुगुणा के लिए याद किया जाता है।
हमेशा विकास के मुद्दे को प्राथमिकता
इस उपचुनाव में ठाकुर बनाम ब्राह्मण को लेकर समाज को बांटने की कोशिश हुई। कुछ इसी तरह की स्थिति वर्ष 1996 व 1998 में हुए लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिली। जब गांव-गांव पोस्टकार्ड भेजकर जातिगत समीकरणों को बढ़ावा देने का प्रयास हुआ। सियासी दलों व प्रत्याशियों की जातिगत राजनीति से जुदा यहां के मतदाताओं ने हमेशा विकास के मुद्दे को प्राथमिकता दी।