डिजिटल डेस्क : हिंदी देश के निज गौरव की पहचान रही है। यही वो भाषा है, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन के समय एक क्रांतिकारी भूमिका अदा की थी। मुंशी प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, भवानिप्रसाद मिश्र, रामधारी सिंह दिनकर जैसे महान साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के साथ लोगों को जागरूक किया। ’ कुछ मस्तक कम पड़ते होंगे जब महाकाल की माला में, मां मांग रही होगी आहुति जब स्वतंत्रता की ज्वाला में, पल भर भी पड़ असमंजस में पथ भूल न जाना पथिक कहीं।’ शिव मंगल सिंह सुमन की यह रचना युवाओं से भारत माता के लिए सीधे सीधे बलिदान का आह्वान कर रही है। ऐसी सैंकड़ों रचनाओं ने लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। यही वो भाषा है जिसे देश के अधिकतर लोग बोलते हैं, समझते हैं। फिर भी देश की स्वतंत्रता के पश्चात हिंदी को राजभाषा बनने के लिए अपने ही देश में संघर्ष करना पड़ा।
14 सितंबर 1949 को इसे राजभाषा के पद पर तो आसीन कर दिया परंतु वह सम्मान जिसकी यह अधिकारी है वह आज तक प्राप्त नहीं हो सका।उस समय अंग्रेजी को 15 वर्ष तक राजकीय कार्यों में संघ की भाषा बनी रहने की छूट मिली थी। परंतु वह छूट 72 वर्ष बीत जाने पर भी बनी हुई है।परिणाम यह हुआ कि आज मध्यम वर्ग अंग्रेजी के पीछे दीवाना हो गया है। बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में होनी चाहिए, ऐसे विचार महात्मा गांधी जी ने उद्धृत किए थे।
परंतु आज माता पिता बच्चों को पैदा होते ही अंग्रेज बनाने पर तुले हुए हैं। बच्चा यदि पंखे की ओर संकेत करके उसे पंखा बोल देता है तो भी उसकी माता उसे कहती है, “नहीं बेटा यह पंखा नहीं फैन है।” इसका परिणाम यह होता है कि न तो बच्चा सही ढंग से अंग्रेजी सीख पाता है और न ही वह हिंदी का ज्ञान प्राप्त कर पाता है।अंग्रेजी की ओर यह आकर्षण उन्हें अपनी मातृभाषा से दूर और बहुत दूर ले जाता है। हिंदी बोलने में उन्हें लज्जा का अनुभव होने लगता है।माता पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे डॉक्टर या इंजीनियर बनें। इसके लिए उन्हें विज्ञान की पढ़ाई करनी पड़ेगी।
अधिकतर लोगों में यह बात घर कर गई है कि विज्ञान की पढ़ाई के लिए हिंदी में कठिन शब्द हैं जबकि अंग्रेजी में वे शब्द सरल होते हैं। यह केवल भ्रम है।जो शब्द अधिक प्रचलन में रहते हैं वे सरल लगने लगते हैं। जिनका प्रचलन कम होता है वे प्रायः कठिन लगते हैं। विज्ञान के शब्दों के विषय में भी यही कहा जा सकता है।वरना एक अपूर्ण और अवैज्ञानिक भाषा हिंदी जैसी पूर्ण भाषा पर कैसे भारी पड़ सकती है? कैसे विश्व की भाषाओं में प्रथम स्थान पर अधिकार जमाए बैठी है?
वर्ष में केवल एक दिन, एक सप्ताह या एक पखवाड़ा मना लेने भर से हिंदी का कल्याण होने वाला नहीं। हिंदी पर चिंता तो सभी प्रकट करते हैं, परंतु यह चिंता केवल सितंबर के महीने में ही क्यों प्रकट होती है? अच्छा हो कि हिंदी के लिए सभी पूरे वर्ष चिंतित रहें। यह एक विडंबना ही है कि कोई व्यक्ति पत्र तो हिंदी में लिखता है परंतु उस पर पाने वाले का पता अंग्रेजी में, जैसे कि हमारे देश के डाकियों को हिंदी न आती हो। हम यदि सच में ही चाहते हैं कि हिंदी को उचित सम्मान मिले तो हमें अपने व्यवहार में अधिक से अधिक हिदी को सम्मिलित करना होगा। ऐसा नहीं है कि हिंदी को बोलने या समझने वालों की संख्या कम है। पिछले दो दशक में इस संख्या में अच्छी खासी वृद्धि हुई है। आज हिंदी संसार की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। इस कार्य में हिंदी समाचार पत्रों का उल्लेखनीय योगदान है। देश विदेश निकलने वाले हिंदी समाचार पत्रों ने हिंदी को लोकप्रिय बनाया है। टेलीविजन और इंटरनेट माध्यमों ने भी हिंदी को लोकप्रिय बनाने में अच्छा योगदान दिया है।
कुछ लोग सोचते हैं कि हिंदी में अन्य दूसरी भाषाओं से आए शब्दों का प्रयोग न किया जाए। कोई भी भाषा तब तक समृद्ध भाषा नहीं बन सकती जब तक कि वह अपने शब्दकोश में अन्य शब्दों को ग्रहण करने की क्षमता नहीं रखती। विश्व की सभी भाषाएं दूसरी भाषाओं से शब्दों को ग्रहण करती हैं। लेकिन यदि हिंदी में उस शब्द का सही विकल्प उपलब्ध है तो वरीयता उसी विकल्प को मिलनी चाहिए।
14 सितंबर को हमें एक संकल्प दिवस के रूप में मनाना चाहिए कि जहां तक संभव हो हम अपने सभी कार्य हिंदी में ही करेंगे जब तक कि अन्य भाषा में कार्य करने की अनिवार्यता न हो।
बलदेव राज भारतीय
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