श्रीनगर। देवभूमि उत्तराखड के पौड़ी जनपद के सराफ धर्मशाला, अपर बाज़ार, श्रीनगर शहर में दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से श्रीमद् भागवत कथा का साप्ताहिक ज्ञानयज्ञ का आयोजन किया जा रहा है। इस कथा में आप प्रभु के विभिन्न स्वरूपों, लीलाओं को अध्यात्म,विज्ञान, संगीत के माध्यम से रसपान करेगें। इसी उपलक्ष्य में नगर में भव्य कलश यात्रा का आयोजन किया गया। श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान यज्ञ के कथा के प्रथम दिवस भागवताचार्या महामनस्विनी विदुषी आस्था भारती ने कहा- यह हमारा सौभाग्य है कि हमें इस पवित्र नगरी में आने का सुअवसर मिला। देवभूमि उत्तराखंड सहस्रों महान योगियों-तपस्वियों की साधना स्थली रही है।
आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण नैसर्गिक सुंदरता, अलकनंदा की पावन धारा व पर्वत हमारी सती रूपी मति को माँ पार्वती जैसा दृढ़ विश्वास धारण करने की सद्प्रेरणा देते भगवत्कृपा की ओर बढ़ा रहे हैं। त्रिपथगामिनी माँ गंगा की तरह यह कथा गंगा भी श्रीनगर निवासियों को वास्तविक श्री से परिचित कराने आई है। भुक्ति-मुक्ति के शाश्वत मार्ग को प्रशस्त करते हुए वास्तविक सुख के विषय में बताया गया। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के संस्थापक एवं संचालक आशुतोष महाराज की शिष्या भागवताचार्या महामनस्विनी विदुषी आस्था भारती ने भागवत महात्म्य, गोकर्ण उपाख्यान, भगवान शिव द्वारा दक्षयज्ञ की पूर्ति आदि प्रसंगों का मर्म समझाया।
साध्वी आस्था भारती ने एक सामनता को रखते हुए सुख की परिभाषा को समझाया- एक आदमी जो बहुत अमीर था, उसने हिल स्टेशन पर जाने का विचार बनाया। उसने ऐसी नाव का इंतज़ाम किया, जिसमें हर प्रकार की सुविधा हो। हर तरह का भोजन हो और उसे परोशने करने के लिए साथ में नौकर भी ले लिए। बस फिर क्या था! पूरा मज़ा करते हुए वह अपनी यात्रा कर रहा था। लेकिन तभी अचानक उसके फोन की घंटी बजी। फोन पर उसे अपने किसी करीबी रिश्तेदार की मृत्यु का समाचार मिला। जैसे ही उसने इस दुखभरी सामचार को सुना तो हर वह वस्तु जो अब तक उसे आनंद दे रही थी, अब उसके लिए उनका कोई माईना नहीं रहा।
भोजन तो अब भी वही था लेकिन उसमें वो स्वाद नहीं रहा। सुख-साधन तो अब भी सामने थे परन्तु अब वे चाहकर भी उसे सुख नहीं दे पा रहे थे। यह सामनता सिद्ध करती है कि संसार के भोग-ऐश्वर्यों में सुख नहीं है। सुख तो मनुष्य के अंतर्मन की स्थिति पर निर्भर करता है। सुख शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। ‘सु’ अर्थात् सुंदर और ‘ख’ अर्थात् अंतःकरण। जिसका अंतःकरण सुंदर और पवित्र हो, वही वास्तव में सुखी है। मनुष्य का अंतःकरण तभी सुंदर और पवित्र हो सकता है, जब वह अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित हो जाएगा और यह केवल अध्यात्म के द्वारा ही संभव है। श्रद्धालु भगवान के ऐसे ही सच्चे संग को सदा के लिए पाकर सांसारिक सुख-संपदा के साथ वास्तविक श्री को भी अर्जित कर लें।