देहरादून। केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा कोदो कुटी (मिलेटस) की फसल पर जोर देने से उत्तराखंड में 75 प्रतिशत किसानों की वार्षिक आय 10 प्रतिशत से 20 प्रतिशत के बीच बढ़ गई है, भारतीय प्रबंधन संस्थान, काशीपुर द्वारा 2,100 से अधिक किसानों पर किए गए एक अध्ययन से पता चला। चार वरिष्ठ प्रोफेसरों और पांच डेटा संग्राहकों द्वारा किया गया छह महीने का अध्ययन, “उत्तराखंड में बाजरा उत्पादन: इसके सामाजिक-आर्थिक प्रभाव और विपणन चुनौतियों का एक अनुभवजन्य विश्लेषण” रविवार को आईआईएम काशीपुर में जारी किया गया।
अंतर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष 2023 ने दुनिया भर में एक सस्टेनेबल फसल के रूप में बाजरा या मिलेटा के बारे में जागरूकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर बाजरा-आधारित उत्पादों की मांग में वृद्धि की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि केंद्र और राज्य सरकार के हालिया दबाव ने बाजार में बाजरा फसलों की मांग पैदा की है, लेकिन किसान इससे अनजान हैं। इसके अलावा, अधिकांश किसान लाभ कमाने के बजाय स्वयं उपभोग के लिए बाजरा उगा रहे हैं। अध्ययन के मुख्य अन्वेषक, आई आई एम काशीपुर के सहायक प्रोफेसर शिवम राय कहते हैं, “स्वयं उपभोग के लिए बाजरा उगाने वाले अधिकांश किसान इसे चावल और गेहूं की तरह धन फसल के रूप में उपयोग नहीं कर रहे हैं।”
शिवम राय के अलावा, अध्ययन के सह-जांचकर्ता हैं; डॉ. दीपक संगरोया और डॉ. गौरव काबरा, ओपी जिंदल ग्लोबल बिजनेस स्कूल में एसोसिएट प्रोफेसर और डॉ. निशांत सिंह बेनेट यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर हैं। इस अध्ययन को भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद द्वारा वित्त मदद दी गई थी। अध्ययन से पता चलता है कि बाजरा किसानों को समर्थन देने के लिए बनाई गई सरकारी योजनाएं संचार अंतराल और भाषा की बाधा के कारण निरर्थक हो रही हैं। प्रोफेसर राय ने कहा, “बाजरा एक टिकाऊ फसल है जो न केवल पौष्टिक, स्वास्थ्यवर्धक है बल्कि भंडारण में भी आसान है और मिट्टी को नुकसान नहीं पहुंचाती है।”
यह अध्ययन बाजरा उत्पादन की विपणन क्षमता की चुनौतियों का समाधान करने और इसकी आर्थिक उपस्थिति बढ़ाने के लिए प्रभावी रणनीतियों की पहचान करने के लिए आयोजित किया गया था। सर्वेक्षण के लिए नमूना राज्य के प्रमुख पहाड़ी क्षेत्रों जैसे कि पिथौरागढ़, जोशीमठ, रुद्रप्रयाग, चमोली और अन्य से एकत्र किया गया था। अध्ययन में कहा गया है कि उत्तराखंड के क्षेत्र में बाजरा उत्पादन सामाजिक-आर्थिक योगदान और समग्र कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बाजरा को स्थानीय समुदाय के लिए मुख्य भोजन माना जाता है, जो अन्य अनाज फसलों पर उनकी निर्भरता को कम करके उनकी खाद्य सुरक्षा और पोषण को बढ़ाता है।
रिपोर्ट में कहा गया है, “बाजरा की खेती कृषि पद्धतियों की सांस्कृतिक विरासत को भी संरक्षित करती है, जिससे जैविक खाद्य प्रणाली अधिक लचीली बनती है।”अध्ययन में हितधारकों का समर्थन करने के लिए विभिन्न लघु और दीर्घकालिक रणनीतियों को लागू करने की सिफारिशें भी की गईं, जो किसानों और स्थानीय समुदाय के लिए एक लचीला और समृद्ध भविष्य सुनिश्चित करते हुए, उत्तराखंड में बाजरा उत्पादन और संवर्धन की क्षमता का दोहन करने के लिए मिलकर काम कर सकते हैं। इस मौके पर शिक्षाविदों, शोधकर्ताओं, बाजरा विशेषज्ञों, किसानों और छोटे पैमाने के बाजरा उद्यमियों की उपस्थिति थे जिन्होंने उत्तराखंड में कोदो कुटकी को लेकर काम किया है।
जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के दो वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. पुष्पा लोहानी और डॉ. जितेंद्र क्वात्रा कार्यक्रम के मुख्य वक्ता थे। डॉ. लोहानी ने कहा कि राज्य सरकार ने हाल ही में मड़वा किस्म की बाजरा फसल का एमएसपी 35.78 रुपये किलोग्राम करने की घोषणा की है, लेकिन किसानों को इसकी जानकारी नहीं है और वे बिचौलियों के हाथों मुनाफा खो रहे हैं, “भारत में मिलिट्स उगाने का इतिहास हड़प्पा सभ्यता में मिलता है जो भारत में हरित क्रांति तक जारी रही पर देश में आई हरित क्रांति के बाद किसान गेहूं और चावल उगाने पर ज्यादा ज़ोर देने लगे। उर्वरकों की मदद से हमने अधिक चावल और गेहूं उगाने में क्षमता पैदा कर ली थी पर हमने प्राचीन और पौष्टिक भोजन खो दिया।”
उन्होंने बताया कि हरित क्रांति के बाद बाजरा की भूमि खेती का क्षेत्र 40 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत हो गया। धारवाड़ में बाजरा किसानों पर कर्नाटक विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक शोध का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि किसानों ने अपनी आय में दो गुना वृद्धि दर्ज की है। अनुसंधान परियोजना के निष्कर्ष बाजरा के उत्पादन, खपत और व्यावसायीकरण में संभावित बाधाओं की पहचान करने में मदद करते हैं। इससे उत्पादकों की आजीविका और बाजरा की आपूर्ति-मूल्य मांग में सुधार के लिए रणनीति तैयार करने में मदद मिलेगी।
कुल मिलाकर, शोध अध्ययन शिक्षा, कृषि और सामाजिक-अर्थशास्त्र में सहायक होगा, नीति निर्माताओं, हितधारकों और बाजरा संवर्धन में वैज्ञानिक प्रगति के लिए बहुमूल्य जानकारी प्रदान करेगा। अध्ययन के नतीजे बाजरा के संरक्षण और सतत विकास में योगदान देंगे, जो इस विषय पर साहित्य के मौजूदा निकाय में शामिल होंगे।